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बुधवार, 14 अगस्त 2013

सेमिनार फ़िजूल है: विनीत कुमार

ब्‍लॉगरों को सेमिनार करने की जरूरत क्या है?

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा ने जब पहली बार हिंदी ब्लॉगिंग को लेकर एक राष्ट्रीय सेमिनार “चिठ्ठाकारी की दुनिया” इलाहाबाद में कराया तो इसे अपनी तरह का पहला कार्यक्रम माना गया। इसे एक मील का पत्थर मानने वालों में दिल्ली के विनीत कुमार भी थे जिन्होंने न सिर्फ़ इसमें प्रतिभाग करते हुए खुलकर अपनी बात रखी थी बल्कि अपनी रिपोर्टों द्वारा इसे इंटरनेट पर खूब प्रचारित भी किया था। मीडिया विषयों पर विशद लेखन करने वाले विनीत आजकल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी पैनेलिस्ट के रूप में दिख जाते हैं। उनकी हुंकार तो आप ब्लॉगरी करते हुए पढ़ते ही होंगे।

अनूप शुक्ल ने इलाहाबाद से लौटकर जो पोस्ट लिखी थी उसमें विनीत की चर्चा इस प्रकार थी-

इस संगोष्ठी में विनीत कुमार से मिलने का मौका मिला। विनीत का काम के प्रति अद्भुत समर्पण देखकर मन खुश हो गया। विनीत ने अपने ब्लाग पर अपनी झांसे वाली फोटो लगा रखी है। सामने से देखने में वो कहीं बेहतर दिखते हैं। ब्लाग वाली उड़ी-उड़ी फ़ोटो बनवाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ी होगी उनको। अगर किसी को इलाहाबाद में क्या हुआ वह बिना नमक मिर्च के जानना हो तो विनीत की ये और ये वाली पोस्ट देखे।

विनीत कुमारमैंने आगामी सेमिनार के लिए जब उनसे चर्चा की तो पहले उन्होंने व्यस्तता के बहाने टालना चाहा; लेकिन जब मैंने सप्ताहान्त में एक-दो दिन का समय निकालने की संभावना की ओर इशारा किया तो वे असलियत पर आ गये। बोले- सर, सही बात यह है कि मैं इस प्रकार के ब्लॉगर सम्मेलन के सख़्त खिलाफ हूँ। यह पैसे की फ़िजूलखर्ची तो है ही इससे कोई लाभ भी नहीं होता। मैं समझता हूँ कि वर्चुअल दुनिया में लिखने-पढ़ने वाले भौतिक रूप से एक-दूसरे को न मिलें तो ही अच्छा है।

मैंने टोका- विनीत जी, आपकी बात अपनी जगह सही हो सकती है। लेकिन आपको यह कैसे लगा कि वर्धा में जो होना प्रस्तावित है वह ब्लॉगर “सम्मेलन” है? मेरे ख़्याल से “सम्मेलन” और “सेमिनार (विचारगोष्ठी)” में अन्तर है। यहाँ तो हिंदी ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया से जुड़े कुछ मुद्दों पर विचार-मंथन होना है। यह कोई चाय-पार्टी या प्रीतिभोज नहीं है जिसमें ब्लॉग लिखने वाले सभी ऐरे-गैरे को बुलाकर इन्ज्वॉय कराना है। अलबत्ता जिस विषय को केन्द्र में रखा गया है उसके बारे में अच्छी जानकारी रखने वाले लोग अन्य तमाम पेशों से जुड़े होने के साथ-साथ ब्लॉगर भी हैं इसलिए ऐसा महसूस हो सकता है कि यह केवल ब्लॉगरों का जुटान है।

-नहीं सर, मैं तो यह कह रहा हूँ कि जो भी बहस की जानी है वह वर्चुअल स्पेस में ही आसानी से हो सकती है और होती ही रहती है। इसके लिए अलग से सेमिनार कराने की क्या जरूरत है। मेरा विरोध तो इस बात से है।

-जरूरत उनके लिए हैं जो इस वर्चुअल स्पेस (आभासी दुनिया) का प्रयोग करने में आपकी तरह सिद्धहस्त नहीं हैं। बहुत से पढ़े-लिखे लोग इसमें अच्छा कर सकते हैं लेकिन उन्हें कोई सूत्र नहीं मिल रहा है। आपने जब ब्लॉगरी शुरू की होगी (2007) उस समय बहुत कम लोग हिंदी में ब्लॉग लिख रहे थे। लगभग सभी एक दूसरे को जान जाते थे और एक दूसरे के ब्लॉग का लिंक अपने ब्लॉग पर रखते थे। नये लोगों को ब्लॉगवाणी और चिठ्ठाजगत जैसे ब्लॉग एग्रीगेटर्स के सहारे दूसरे ब्लॉगर्स तक पहुँचने का रास्ता मिल जाता था। इनके बन्द हो जाने के बाद अब सबकुछ इतना आसान नहीं रहा। संभव है आज बहुत से नये ब्लॉगर्स हमसे-आपसे बहुत अच्छा लिख रहे हों या लिख सकते हों; लेकिन उनके बारे में हम जान ही नहीं पाते हैं। दूसरी ओर फेसबुक और ट्विटर की तेज रफ़्तार दुनिया में मची भागमभाग ने भी हिंदी ब्लॉगिंग को पीछे कर दिया है। हमें तो यह सोचना है कि इस तेजधारा के बीच खड़ी हिंदी ब्लॉगिंग जमी रह सकने की स्थिति में है या इस बाढ़ में बह जाएगी।

-सर, तो इसे आप कैसे रोक पाएंगे? फेसबुक पर जो सुविधाएँ है या ट्विटर में जो आकर्षण है वह ब्लॉग में कैसे पैदा कर पाएंगे? इसे तो इनके हाल पर ही छोड़ देना होगा। कोई यह सोच भी कैसे सकता है कि इंटरनेट प्रयोग करने वालों की पसन्द बदली जा सकती है? या उनके ऊपर कोई अनुशासन थोपा जा सकता है?

-नहीं-नहीं, मैं या कोई भी ऐसा नहीं सोच सकता। मैं तो यह कहना चाह रहा हूँ कि ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर का डोमेन बिल्कुल अलग-अलग है। आप बताइए, किसी फेसबुक स्टेटस की सक्रिय आयु कितनी होती है या एक ट्वीट कितने मिनट तक ताजा रहता है? दो-चार मिनट से लेकर अधिकतम चौबीस घंटे तक ही न! आप कितनी बार अपने पुराने स्टेटस या ट्वीट को देखना चाहते हैं? दूसरे लोग कितनी रुचि रखते हैं इसमें? इसमें कितना कुछ सहेज कर रखने लायक होता है? एक अखबार की तरह यह एक बार पढ़ लिये जाने के बाद रद्दी नहीं बन जाता? लेकिन ब्लॉग का स्वरूप तो इससे अलग है। इसका आर्काइव कभी भी निराश नहीं करता। इसमें वह बदहवास भागमभाग नहीं है। फास्ट-फूड कल्चर का जो प्रभाव फेसबुक और ट्विटर में दिखता है वह ब्लॉग पर नहीं है। ये तीनो एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं हैं बल्कि इस आभासी दुनिया में इन तीनों के एक दूसरे के समानान्तर चलने भर का स्पेस मौजूद है।

-यह बात तो ठीक है। सहमत हूँ इससे। आपको मैं कुछ साल पहले ज्ञानोदय में छपा अपना एक लंबा आलेख भेजूंगा जिसमें मैंने हिंदी ब्लॉगिंग के प्रति लोगों के बदलते नज़रिए के बारे में लिखा था। पारंपरिक रूप से हिंदी भाषा और साहित्य को अपनी मिल्कियत समझने वाले तथाकथित कालजयी साहित्यकार और समालोचक जब इस नये माध्यम को मार्गदर्शन देने की मुद्रा बनाते हैं तो मुझे बहुत खराब लगता है। कल तक जो इसे कूड़ा-कचरा कहते रहते थे वे आज खुद ही यहाँ आने और चर्चित होने की जुगत भिड़ा रहे हैं। सबने अपने पेज बना लिए हैं और यहाँ सक्रियता दिखा रहे हैं। मैं इस लिए किसी साहित्यिक संस्था द्वारा इस माध्यम को हाईजैक करने का विरोधी हूँ।

-तो भाई मेरे, जब आप जैसे लोग अपनी बात रखने के बजाय ऐसे मौकों से किनारा करते रहेंगे तो उस जगह को भरने के लिए कोई तो आएगा। मैं तो चाहता हूँ कि आप अपने रैडिकल विचार यहाँ रखें और एक गंभीर बहस की शुरुआत हो। एक दूसरा पहलू यह भी है कि हिंदी भाषा-भाषी बहुत से लोग जो कंप्यूटर और इंटरनेट के संपर्क में हैं और फेसबुक/ ट्विटर पर बाइट बढ़ा रहे हैं वे रोमन में ही हिन्दी बातें ठेले जा रहे हैं। देवनागरी लिपि का प्रयोग करने के लिए यूनीकोड की जानकारी नहीं है। लिप्यान्तरण के औंजार प्रयोग करना नहीं जानते। इसलिए फेसबुक की कामचलाऊ स्टेटस तो लिख लेते हैं लेकिन ब्लॉग शुरू ही नहीं कर पाते। क्या आपको नहीं लगता कि इन्टरनेट पर देवनागरी का प्रयोग सहज और सरल रूप में प्रचलित करने के लिए हमें प्रयास करना चाहिए। क्या इसके लिए वर्कशॉप करना फिजूल है?

-नहीं सर, यह तो जरूरी ही है। लेकिन…

-लेकिन क्या? हिन्दी में ब्लॉग लिखने और बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचने में कठिनाई सिर्फ़ फेसबुक और ट्विटर के कारण तो आयी नहीं है! यूनीकोड के मसले के अलावा इसे सर्च इंजन के अनुकूल बनाने, अपनी सामग्री को सही तरीके से टैग करने तथा अपने ब्लॉग की विषय वस्तु को सुव्यवस्थित तरीके से वर्गीकृत करने का शऊर कितने लोगों को आता है?  इसके लिए एक अदद सक्षम एग्रीगेटर यदि नहीं है तो उसे खोजने की कोशिश तो करनी पड़ेगी न! यह हिन्दी ब्लॉग का दुर्भाग्य है कि इसे कोई जुकरबर्ग नहीं मिला। जिन लोगों ने निजी जुनून से कुछ प्रयास किया उनको अंततः आर्थिक मोर्चे पर निराशा मिली और गाड़ी पटरी से उतरती दिखती है। आज यदि कोई संस्था इस कमी को पूरा करने की संभावना दिखाती है तो उसे क्यों मिस किया जाय। क्या हिंदी ब्लॉगरी का इतिहास लिख कर इसे मटिया दिया जाय? अथवा इसके जो लाभ हैं और जिसके बारे में आपने भी बहुत कुछ लिखा है उसे और अधिक विस्तार देने के बारे में सोचा जाय?

हाँ-हाँ, यह तो बहुत अच्छा है। यदि वर्धा वाले एक एग्रीगेटर की कमी पूरी कर दें तो बहुत अच्छा होगा। लेकिन सर मैं आपके इस स्नेह के लिए और आपने जो मान मुझे दिया उसके लिए धन्यवाद देते हुए भी इतना कहना चाहूंगा कि मेरी पूरी सक्रियता इस माध्यम के लिए रहेगी लेकिन मैं अपने को वर्चुअल स्पेस तक ही सीमित रखना चाहता हूँ। मैं किसी भी प्रकार से ऐसे आयोजन में पहुँचकर प्रतिभाग नहीं कर सकता। बाकी जो भी विषय सामग्री आपको चाहिए मैं आपको मेल कर दूंगा। आप उसे सेमिनार में जैसे चाहें प्रयोग करें।

विनीत ने वादे के मुताबिक जो आलेख (ब्लॉगिंग जो हिन्दी विभाग की पैदाईश नहीं है) भेजा उसकी शुरुआती पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

“ब्लॉग के बहाने पहले तो वर्चुअल स्पेस में और अब प्रिंट माध्यमों में एक ऐसी हिंदी तेजी से पैर पसार रही है जो कि देश के किसी भी हिंदी विभाग की कोख की पैदाइश नहीं है। पैदाइशी तौर पर हिंदी विभाग से अलग इस हिंदी में एक खास किस्म का बेहयापन है, जो पाठकों के बीच आने से पहले न तो नामवर आलोचकों से वैरीफिकेशन की परवाह करती है और न ही वाक्य विन्यास में सिद्धस्थ शब्दों की कीमियागिरी करनेवाले लोगों से अपनी तारीफ में कुछ लिखवाना चाहती है। पूरी की पूरी एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है जो निर्देशों और नसीहतों से मुक्त होकर हिंदी में कुछ लिख रही है। इतनी बड़ी दुनिया के कबाड़खाने से जिसके हाथ अनुभव का जो टुकड़ा जिस हाल में लग गया, वह उसी को लेकर लिखना शुरू कर देता है। इस हिंदी को लिखने के पीछे का सीधा-सा फार्मूला है जो बात जैसे दिल-दिमाग के रास्ते कीबोर्ड पर उतर आये उसे टाइप कर डालो, भाषा तो पीछे से टहलती हुई अपने-आप चली आएगी।”

इस वार्ता के बाद मेरा विश्वास और पक्का हुआ है कि वर्धा में एक जोरदार विचार मंथन और कुछ ठोस फैसले लेने का औचित्य बनता है। आपका क्या ख़्याल है?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

20 टिप्‍पणियां:

  1. हिन्दी पाठशाला जैसा कोई समूह बने और उसमें सब जुड़ें।

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  2. सिद्धार्थजी, अगर मुझे इस बात का अंदाजा पहले से होता कि आपके दो राउंड फोन किए जाने के दौरान हुई बातचीत को इस तरह से लिपिबद्ध करेंगे तो मैं आपको इतनी मेहनत करने देने के पहले सारी बातें खुद ही विस्तार से लिखकर मेल करता लेकिन आपकी तत्परता ने ऐसी स्थिति आने नहीं दी. आपने कुल तीन बार जो फोन किए,वो तीनों बार बातचीत करने की स्थिति नहीं थी. एक बार भारी बारिश में फंसा, दूसरी बार बस के लिए भागता हुआ और तीसरी बार चोरी में वॉलेट गंवाकर घर में थोड़ा परेशान लेकिन मैंने बिना किसी दुराव-छिपाव के अपनी बात रखी. खैर, इससे मेरी वैचारिकी में बिल्कुल भी फर्क नहीं पड़ता और मैं सचमुच इस तरह के आयोजन के सीधे-सीधे खिलाफ न भी कहें तो अपने को दूर रखता हूं.

    आपको मेरे इलाहाबाद आने का प्रसंग बेहतर याद है और मुझे उतना ही दूसरे सम्मेलन में न बुलाए जाने की आपके विश्वविद्यालय की वाजिब वजह कि विनीत जैसे लोगों को बुलाने से दिक्कत हो सकती है. मैं नहीं समझ पाया कि वर्धा विश्वविद्यालय जो अपने पुलिसिया रवैया के लिए कुख्यात रहा है, इस बार इतना लोकतांत्रिक कैसे हो गया कि आप न केवल बार-बार आग्रह करके मन बदलने की बात कर रहे हैं बल्कि मेरे न आने की स्थिति में मुझसे ये भी पूछ रहे हैं कि आप कुछ उन नामों का सुझाव दें जिन्हें बुलाया जा सके. सिद्धार्थजी, शुरुआत के एक-दो ब्लॉग सम्मेलनों और कार्यक्रमों में मैंने जरुर हिस्सा लिया और उसकी अपनी वजह भी रही..पहली तो ये कि तब ये बिल्कुल नया था और हम रवि रतलामी जैसे लोगों से तकनीकी रुप से कुछ अतिरिक्त सिखना चाहते थे.हालांकि अभी भी सीखा जा सकता है लेकिन ये बाद शिद्दत से महसूस करता हूं कि ब्लॉग लेखन के लिए जितनी तकनीकी समझ की जरुरत होती है, वो काम चलाने लायक कर ले पा रहा हूं.
    दूसरा कि हमने ये बात ऐसे एक-दो कार्यक्रमों में जाने के बाद अंदाजा लगा लिया कि बात चाहे जो भी और विषय चाहे जैसे भी रखे जाएं, आखिर तक आते-आते उसकी दालमखनी( मां की दाल) ही बन जाती है. हम ठहरे दीहाड़ी चाहे वो पढ़ाने को लेकर हो या फिर पत्रिकाओं में लिखने या उन चैनल की परिचर्चाओं में शामिल होने की जिसकी चर्चा आपने मेरी तारीफ में उपर की है. हम इन कार्यक्रमों के अभ्यस्त नहीं हो पाए. मुझे बेहद अफसोस है कि मैंने जिस शालीनता और भावनात्मक अंदाज में अपने न आने की वजह बतायी, आपने उसे ऐसी शाब्दिक अभिव्यक्ति दी कि जैसे कोई कंसपिरेसी का हिस्सा हो.आपका दूसरे ब्लॉग सेमिनार या सम्मेलन में मुझे न बुलाना और बैकडोर से संदेश भिजवाना जितना स्वाभाविक था, उससे कहीं ज्यादा स्वाभाविक तो ये है न कि आपने मना करने के ठीक बाद पूछा- आपके पास समय नहीं है या फिर आना ही नहीं चाहते और मैंने बड़ी स्पष्टता से कहा- आप यही समझ लीजिए कि हम आना ही नहीं चाहते. आपने बात आगे बढ़ाई और मैंने ब्लॉग के पूरे परिदृश्य को लेकर इसके पीछे की वजह बतायी कि मैं ब्लॉग के इस विकसित रुप के बीच सम्मेलन किए जाने या जुटने के सैद्धांतिक रुप से पक्ष में नहीं हूं..मेरे मना करने के बाद आपने खुद ये प्रस्ताव रखा कि कल आपको फोन करता हूं, शायद आपका मन बदले. आपने फोन किया और आखिर-आखिर तक हमने यही कहा कि नहीं मुझे रहने दें.

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    1. विनीत जी, मुझे ताज्जुब है कि आप तकनीकी रूप से इतना समर्थ होते हुए भी कैसे यह क्रुद्ध प्रतिक्रिया देने से पहले अपना मेल-बॉक्स चेक नहीं कर पाये। sstwardha@gmail.com के साथ अपने संदेशो के आदान-प्रदान की कड़ियाँ देखिए। मैने मेल कर दिया है। वर्धा के पिछले सेमिनार के लिए मैंने बाकायदा आपको आमंत्रित किया था। आपने शुरुआती हिचक के बाद आने का मन भी बनाया था लेकिन ऐन वक्त पर आपको “स्पाइनल कोड” की तकलीफ़ हो गयी थी और आपने खेद व्यक्त करते हुए आने में असमर्थता जतायी थी। आप चाहें तो स्वयं उस समय आपको वर्धा में पाने के लिए मैंने जो मनुहार की थी उसका पूरा आलेख प्रकाशित कर सकते हैं।

      इसलिए इलाहाबाद के अनुभव के बाद वर्धा में संभावित दिक्कत के कारण न बुलाने की बात बिल्कुल बेमानी है। विश्वविद्यालय के पास ऐसी कोई वाजिब य गैर-वाजिब दिक्कत नहीं थी।

      जहाँ तक सेमिनार के संयोजक के रूप में मुझे अनुभव है विश्वविद्यालय के किसी अधिकारी द्वारा कभी भी मुझे इस आशय के निर्देश नहीं दिये गये कि किसे नहीं बुलाना है। जी हाँ, पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही आमंत्रण भेजने की छूट थी। यदि किसी को कोई शक है तो वह मेरे निजी प्रयास में कमी हो सकती है।

      आप तो स्वयं बहुत स्पष्टवादी हैं और यही बात मुझे पसन्द आयी जो मैंने आपसे इतनी लंबी बात की और आप्का मन बदलने की कोशिश की। असफल रहने पर मैंने पूरी ईमानदारी से अपनी असफलता की कहानी लिख दी। इसे वस्तुनिष्ठ बनाये रखने की पूरी कोशिश की। चूंकि हमारी बात रिकॉर्ड नहीं हुई है इसलिए लिपिबद्ध करने में कुछ शब्दों की हेरे-फेर हो सकती है लेकिन इसका प्रयास जरूर किया गया है कि आपके विचारों की मूल भावना अपरिवर्तित रहे। आपने भी किसी तथ्यात्मक त्रुटि की ओर इशारा नहीं किया है।

      इसके बावजूद आपको कोई बात नागँवार लगी हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ।

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  3. हमारी बातचीत इस बिन्दु पर आकर खत्म हो गयी कि आपकी इस संबंध में जो भी राय है, उसे आप हमें लिखकर भेजेंगे और साथ ही आप कुछ उन ब्लॉगरों के नाम सुझाएंगे जिन्हें लेकर आपको लगता है कि उन्हें बुलाया जाना चाहिए. ये बेहद स्वाभाविक है. मेरे पास जब कभी फिल्म पर, साहित्यिक पत्रिका में लिखने के संदेश आते हैं मैं बहुत ही सहज भाव से मना कर देता हूं कि मैं अलग से आपके लिए कुछ नहीं लिख सकता..आगे वो कुछ लोगों के नाम बताने की बात करते हैं और हमें लगता है तो बता देते हैं. इसे मैं साझेदारी का हिस्सा मानता हूं. मुझे लगा कि आप मेरे ब्लॉग सम्मेलन संबंधी राय के भेजे जाने का थोड़ा वक्त देंगे लेकिन आपकी तत्परता आपको रोक नहीं पायी..कोई बात नहीं.

    मैं अब भी मानता हूं कि ब्लॉग की असल ताकत, पहचान और क्षमता वर्चुअल स्पेस पर लिखे जाने की सक्रियता से है. शुरुआत में इसकी संभावना को लेकर दालमखनी बनते थे और अभी दस साल भी नहीं हुए कायदे से कि चुनौतियों पर चर्चा शुरु हो गई. मुझे लगता है कि हम साहित्य की वही बासी बहसें यहां लाकर पटक दे रहे हैं. दूसरा कि पता नहीं कौन-कौन से मनीषी रातोंरात पैदा हो गए जो ब्लॉग का विभाजन साहित्यिक और साहित्येतर करने लग गए. वैसे इस क्षेत्र में जहां किताबों की अग्रिम बुकिंग करने पर इतिहास में नाम दर्ज करने की परंपरा शुरु की जा सकी हो तो कुछ भी संभव है. मैं इन सबको बिल्कुल भी बेकार, वाहियात कहने के बजाय इससे अपने को अलग रखने की कोशिश करता आया हूं. मुझे सच में उन महंतों,मठाधीशों के आगे ब्लॉग को लेकर अपनी बात रखने में दिक्कत रही है जो इसे हर हाल में साहित्यिक मानकों के खांचे में फिट होता देखना चाहते हैं.

    इन सबके बीच निश्चित रुप से वर्धा विश्वविद्यालय कई संभावनाओं और वैचारिकी को आगे बढ़ाने की नियत से ये कार्यक्रम कर रहा हो लेकिन मेरी अपनी समझदारी बस इतनी है कि जिस विश्वविद्यालय ने प्रतिरोध की आवाज को, उसकी जमीन को लगातार कुचलने का काम किया है, वो ब्लॉग जैसे उन्मुक्त माध्यम पर कार्यक्रम करवाने का कितना नैतिक अधिकार रखता है, इस बहस में न जाते हुए भी इसमें न आने की बात कहनेवाले को दाएं-बाएं करके घसीटने की कोशिश करे, ये किसी भी लिहाज से सही नहीं है. आपलोग हमें लगातार पढ़ते आए हैं, याद करते हैं, मेरे लिए ये काफी है और जहां तक वहां आकर लाभान्वित होने और जो वर्चुअल स्पेस से वंचित हैं, उनकी समझदारी की बात है तो देखिए ब्लॉगिंग के मामले में मैं प्रेमचंद को याद करना चाहूंगा- बिना मरे स्वर्ग नहीं जाया जा सकता( हालांकि हम इस स्वर्ग-नरक की मान्यता को नहीं स्वीकारते). ब्लॉगिंग के प्रति बेहतर समझ व्याखायान और भाषणों से नहीं, खासकर जो करने के बजाय इसी से लाभान्वित होना चाहते हैं, इसमे गहरे उतरकर ही संभव है और इसके लिए जरुरी नहीं कि हम ब्लॉगर शरीरी रुप से मौजूद ही हों. असल में वर्धा विश्वविद्यालय ब्लॉग के ढांचे/ठठरी को लेकर चिंतित है और हम उसकी लगातार आत्मा बचाए रखने की कामना करते रहेंगे. आत्मा को खत्म करके आप चाहे जो भी सम्मेलन,समारोह और चिंतन शिविर करा लें,इसका विकास संभव नहीं है. क्या पता ये चुनौती और संभावनाओं से जुड़े सवाल इसी कृत्य से निकलकर आते हों.

    सिद्धार्थजी,आपके शब्दों में एक तरफ हम जैसे लोगों के आने से मना करनेवाले लोग हैं तो दूसरी तरफ ऐसे लोगों की भारी संख्या है जो अपने पैसे से टिकट कटाकर आने के लिए तैयार हैं. हमें इन स्थितियों के बीच हमेशा की तरह लिखने दें. इस देश में ब्लॉग के नाम पर आए दिन कार्यक्रम होते रहते हैं, लोग अक्सर दिल्ली आते रहते हैं, मेरे फोन पर न पहचाने जाने के आरोप मढ़कर भी जाते हैं..हमें कभी कुछ अजीब और भारी नहीं लगता..हम ब्लॉगरों के लिए ये पुरस्कार है.हमारे लिए तिरस्कार,अपमान,व्यंग्य और उपहास सब ग्राह्य है. कल तक गैरब्लॉगर करते थे, बिना संदर्भ को समझे और आज आप जैसे लोग संदर्भ बदलकर ऐसा कर रहे हैं..क्या फर्क पड़ता है ? बस ये है कि लिखने के प्रति यकीन बना रहे..अपनी तमाम असहमतियों के बावजूद हमारे लिखे को पढ़ने की ललक बनी रहे, हमारे लिए काफी है..हम जैसे कुछ नहीं भी शामिल होते हैं तो क्या हो जाता है,वर्चुअल स्पेस पर तो हम मौजूद हैं ही जैसा कि पहले भी रहे हैं.उम्मीद करता हूं कि मेरी इस टिप्पणी को, मेरे न आने को एक व्यक्तिगत फैसले के रुप में लेंगे और जो आड़ी-तिरछी मेरी समझ है, उसे जगह देंगे..हां ये है कि आपने अपनी पोस्ट में अपने लिए(मेरी तरफ से) सर का प्रयोग किया है तो ऐसा लग रहा है कि मैं कोई गुहार लगा रहा हूं.हर वाक्य के साथ सर तो नहीं ही कही थी. लिप्यंतरण में कई बार निजी समझदारी भी शामिल हो जाती है. खैर
    आपलोगों का
    विनीत
    ( पूरी टिप्पणी एक बार में प्रकाशित नहीं हुई.इसे आगे की कड़ी के रुप में पढ़ें)

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    उत्तर
    1. “इसमें न आने की बात कहनेवाले को दाएं-बाएं करके घसीटने की कोशिश करे, ये किसी भी लिहाज से सही नहीं है”
      ...
      ...
      “हमारे लिए तिरस्कार,अपमान,व्यंग्य और उपहास सब ग्राह्य है. कल तक गैरब्लॉगर करते थे, बिना संदर्भ को समझे और आज आप जैसे लोग संदर्भ बदलकर ऐसा कर रहे हैं..क्या फर्क पड़ता है ?”
      ...
      “आपने अपनी पोस्ट में अपने लिए(मेरी तरफ से) सर का प्रयोग किया है तो ऐसा लग रहा है कि मैं कोई गुहार लगा रहा हूं.हर वाक्य के साथ सर तो नहीं ही कही थी. लिप्यंतरण में कई बार निजी समझदारी भी शामिल हो जाती है. खैर”

      ऊपर के वाक्यों में आपने जो कहने की कोशिश की है उससे मुझे आपत्ति है और उससे ज्यादा दुख है। किसी भी प्रकार से आपका उपहास करना न तो उद्देश्य था और न ही पोस्ट से ऐसा निष्कर्ष निकलता है। गुहार लगाने का काम तो मेरा था भाई, आप क्यों गुहार लगाएंगे। सेमिनार के संयोजन का दायित्व तो मेरा है। आप जैसे बड़े विचारक को मिस नहीं करना चाहता था इसलिए दो-तीन बार फोन लगा लिया और अपनी बात रख दी। आप नहीं माने तो यह बात भी यहाँ रख दी। मुझे लगा कि उम्र में बड़ा समझकर आप मुझे ‘सर’ कह रहे होंगे जैसे तमाम लोग सामान्य तौर पर कहते ही हैं; लेकिन आपको इसका मलाल है तो मैं यह संबोधन आपको वापस देता हूँ।

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  4. कुछ हासिल करने के लिए बहुत कुछ करना ही पड़ेगा। अगर ऐसी भावना मन में भाव ना ला पाये फिर तो प्रत्‍येक क्षेत्र में विकास की संभावनाएं धरा पर धरी रह जाएं। जो धरा पर हैं उनका आभासी दुनिया से वास्‍तविक दुनिया में उतरना मुझे तो बहुत जरूरी दिखता है। और सिर्फ दिखता ही नहीं परंतु इसमें आपस में जिम्‍मेदारी वाला भाव विकसित होता है। जिसकी जरूरत सिर्फ ब्‍लॉगिंग ही नहीं, प्रत्‍येक क्षेत्र की है। इससे इंकार करना सच्‍चाई से मुंह मोड़ना है। पहले मुंह उस तरफ करना, फिर मोड़ लेना, मजबूरियां दूसरी रहती हैं जिन्‍हें तीसरी व्‍यस्‍तताओं और विवशताओं का जामा पहनाना किसी के लिए भी बहुत सरल है। उसके लिए अधिक ज्ञानवान होने की कतई जरूरत नहीं है। मिलना मजबूरी नहीं, जरूरत है। विकास मिलने से ही होता है और न मिलने से गलतफहमियां ही पैदा होती हैं। मंच पर जो बात अच्‍छे से सबके बीच रखी जा सकती है और खुलकर उन पर चर्चा और विमर्श किया जा सकता है। वह सोशल मीडिया के किसी भी प्‍लेटफार्म पर विवाद का विषय आसानी से बना दिया जाता है। इसलिए मैं इस प्रकार के आयोजनों की सार्थकता बहुत शिद्दत से महसूस करता हूं और इसे कतई नकार नहीं सकता। जय ब्‍लॉगिग, जय हिंदी ब्‍लॉगिंग।

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  5. विनीत कुमार के बारे में हमारी राय अभी भी वही है जो इलाहाबाद सम्मेलन में उनसे मिलने पर थी। विनीत ने (ब्लॉगिंग जो हिन्दी विभाग की पैदाईश नहीं है) वाला लेख तीन साल पहले ज्ञानोदय के लिये लिखा था। ब्लॉगिंग को वर्चुअल स्पेस तक ही सीमित रखने की बात वे पहले भी कहते रहे हैं। जब लखनऊ विचार मंच/छत्तीसगढ़ विचार मंच बन रहे थे तब भी उन्होंने इस प्रवृत्ति के खिलाफ़ लेख लिखे थे।

    इसके पहले इलाहाबाद और बाद में वर्धा में भी जो सम्मेलन हुये उनकी सफ़लता का श्रेय सिद्धार्थ त्रिपाठी के सक्षम संगठन और इंतजाम को ही जाता है। तमाम असहमतियों और विरोध के बावजूद सिद्धार्थ ने चुपचाप इंतजाम किये। बाद में अपनी बात विनम्रता से धर दी। इस बार उद्धाटन ही पोस्टबाजी से हो गया। जय हो।

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  6. मुझे लगता है कि कोई भी मंच गड़बड़ नहीं अगर उसके जरिए गड़बड़ काम न शुरू हो जाएं। और विचार मंच तो बिल्कुल भी नहीं। अपनी जगह अपने विचार के साथ एक मंच तैयार करना तो बेहतर काम है। विनीत अच्छे आलोचक हैं और सिद्धार्थ त्रिपाठी अच्छे आयोजक। दोनों अपने काम बारीकी से निष्ठापूर्वक कर रहे हैं करेंगे ये इस पोस्ट के बाद और साफ हो रहा है। माध्यम कोई भी हो बस जोड़ने के लिहाज से होता है। इसलिए जुड़िए जोड़िए जिसे लगे जुड़ नहीं रहा उसके लिए छोड़िए।

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  7. विनीत जी नामी लेखक हैं, उनकी टिप्पणियों से ज़ाहिर हुआ कि, मनमर्जी के भी हैं. किसी का मन रखने के लिये वे कुछ नहीं कर सकते. ये अलग बात है, कि वे अपनी वर्चुअल स्पेस वाली बात सशरीर उपस्थित होके भी कह सकते थे. खैर, उन्हें ये सम्मेलन अपने स्तर का न लगा होगा शायद. आखिर तमाम पत्रिकाओं के आग्रहों को वे ठुकरा देते हैं, तब जब कि वे लेखन-कर्म में ही संलग्न हैं. फिलहाल मुझे विनीत जी का लहजा एकदम पसन्द नहीं आया. उनके लेखन से बहुत अलग है उनकी सोच. उम्मीद है सिद्धार्थ जी, अब ज़रा सोच-समझ के कदम उठायेंगे आप. आलोचक का काम केवल आलोचना करना नहीं होता,कभी समालोचना भी की जाये विनीत जी.

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  9. क्या विनीत कुमार इतने महत्वपूर्ण हैं कि उनकी सहमति और असहमति को लेकर एक पृथक पोस्ट लिखी जाय ?
    मैं तो विनीत कुमार का नियमित पाठक नहीं हूँ केवल इसलिए कि वे लिखते अनावश्यक विस्तार से हैं -एक दो बार उन्हें टोका भी है! जो अपनी बात संक्षेप में सारगर्भित तरीके से नहीं कर/रख सकता उसे अभी अभिव्यक्ति का बड़ा फासला तय करना है. मैंने उनकी वर्तनी की अशुद्धियों को भी देखा है . हाँ विजुअल मीडिया में ऐसे लोग खप जाते हैं क्योंकि वहां तो लल्लू जगधर भी खप जाते हैं . अभी विनीत जी को अपनी लम्बी साधना में रत रहने दीजिये . उनकी तपस्या भंग करने का गुनाह मत करिए .
    कोई किसी सम्मलेन में जाय न जाय यह उसका निजी निर्णय है और ऐसे निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए !
    अभी विनीत जी का प्रोबेशन काल है उन्हें डिस्टर्ब करना कदाचित उचित नहीं है .जब वे इस परिवीक्षा काल से निकल आयेगें और कुछ काबिलियत दिखेगी तो हम उनका अनुनय विनय करके ले आयेगें! अभी तो उन्हें अपने को साबित कर लेने दीजिये !
    अनूप जी की विशेष कृपा विनीत जी पर रही है . युवाओं पर उनकी ऐसी कृपा पहले भी दिखती रही है . उसके अपने निहितार्थ हैं -जिनकी अनौपचारिक चर्चा कहीं मिल बैठ कर होगी . अभी यहाँ उसकी चर्चा असंगत हो जायेगी :-)
    सेमीनार सम्मलेन जीवन्तता और सृजनात्मकता के हेतु/ सेतु हैं -मैं उनका हमेशा स्वागत करता हूँ! अभी वो वक्त नहीं आया कि भारत में इनका आयोजन (वेबनार ) पूरी तरह से डिजिटल हो जाय . हममें से अधिकाँश की कनेक्टिविटी इतनी अच्छी नहीं है कि हम वेब पर सेकेण्ड लाईफ जैसे आभासी दुनिया में आभासी शरीर से पहुँच विचार विमर्श कर सकें . विनीत जी को यह भी समझाना होगा . अभी वे युवा हैं और युवा स्वरों का स्वागत तो किया जाना चाहिए मगर उन्हें अनावश्यक रूप से प्रोत्साहित करना उनके ही हित में नहीं है . आप भी यह विनीत व्यामोह छोडिये और सेमीनार के आयोजन के प्रति थोडा गंभीर होईये!

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  10. below the belt prahar karne ki purani aadat hai vinit kee.

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  11. मैं अरविंद जी की बातों से सहमत हूँ । मुझे तो लगता है कि आपने अनावश्यक ही विनीत कुमार को महत्वपूर्ण मान लिया है। मैं कभी भी उनकी लेखन शैली और वेबजह बात को बतंगड़ बनाने की प्रवृति को महत्व नहीं दिया। उनका न तो हिन्दी ब्लोगिंग में कोई विशेष योगदान रहा है और न ही उनकी पोस्ट किसी विमर्श को जन्म दे पाती है। फिर क्यों उनकी सहमति और असहमति को लेकर एक पृथक पोस्ट लिखी जाए?

    सम्मेलन/संगोष्ठी को लेकर आप थोड़ा गंभीर होईए। सम्मेलन की अपनी एक अलग महत्ता है ऐसे अनावश्यक विमर्श से सम्मेलन का मूल उद्देश्य प्रभावित होता है और हम अपने लक्ष्य से परे हो जाते हैं। वर्धा के इस संभावित सम्मेलन को एक नया आयाम दीजिये, हमारी शुभकामनायें आपके साथ है।

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  13. सिददार्थ जी,
    मुझे याद है, कि आपकी अगुआई मे वर्ष-2010 में जो वर्धा सम्मेलन हुआ था उसमें आचार संहिता को लेकर जबर्दस्त विचार मंथन हुये थे।उसके बाद हिन्दी चिट्ठाकारिता में विचारों को लेकर अद्भुत परिवर्तन आया। पिछले वर्ष लखनऊ सम्मेलन के दौरान ब्लॉगर पीठ बनाने का प्रस्ताव आया, लेकिन जो बुनियादी बातें हैं उसपर अभी तक शायद गौर नहीं किया गया है। हमें दो चीजों को एक परियोजना का रूप देना होगा, एक "हिन्दी चिट्ठा समय" की संरचना और दूसरी "ब्लॉगर पीठ" की स्थापना। हिन्दी चिट्ठा समय के दो रूपों पर विचार करना होगा- विवरणिका और एग्रीगेटर। ये दोनों रूप अलग-अलग डोमेन पर भी हो सकते हैं या फिर एक ही डोमेन पर सयुंक्त रूप से। विवरणिका में विषयपरक और महत्वपूर्ण ब्लॉग के बारे में जानकारी हो और ब्लॉगर के योगदान को रेखांकित करते हुये उनका सचित्र परिचय हो साथ ही उनकी कुछ महत्वपूर्ण पोस्ट को भी स्थान मेले। इसका नाम हिन्दी चिट्ठा कोश रखा जा सकता है। दूसरा एग्रीगेटर बेस हो, जिसमें हिन्दी चिट्ठों के लिंक हो और उनकी प्रतिदिन रैंकिंग को प्रमुखता के साथ प्रदर्शित किया जाये। इसका नाम हिन्दी चिट्ठा समय रखा जा सकता है। हमें इन दोनों बातों पर गौर करना होगा और उस दिशा में क्रांतिकारी बदलाव हेतु सामूहिकता के साथ प्रतिबद्ध होना होगा।

    एक और पहल करने की जरूरत है, कि वर्धा स्थित विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में न्यू मीडिया (हिन्दी ब्लोगिंग) और सोशल मीडिया से संबन्धित महत्वपूर्ण पाठ्यक्रमों का समावेश हो । इससे हिन्दी ब्लोगिंग को एक नयी दिशा मिलेगी, एक नया आयाम मिलेगा। ऐसा मेरा मानना है।

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  14. उत्तर
    1. जो हो रहा है वह तो सामने ही है। :)
      ...
      आप सितंबर में भारत पधार रहे हों तो जबलपुर से नागपुर होते हुए वर्धा का प्रोग्राम बना लीजिए। सच में आनन्द आ जाएगा।
      ...
      यह सेमिनार पिछले सभी सेमिनारों का रिकार्ड उसी प्रकार तोड़ने वाला है जिस प्रकार आजकल चेन्नई एक्सप्रेस बॉक्स-ऑफिस के सभी पिछले रिकार्ड तोड़ रही है।

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